आज फिर ..
नशा उतरा नहीं है अभी
पेट में खलिश सी है
और होंठ भी सूखे हैं अभी
घनी शाम का ये सर्द आसमां
फिर वही डर सा लेकर आया है
पतझड़ के सूखे पेड़ तले
उन्ही सवालों की सेना लाया है
ज़िन्दगी के कोटि जो थे
स्वप्न उनका क्या हुआ
जोश में भीगे हुए
अरमां उनका क्या हुआ
ढूँढनी थीं राहें तुमको
उन रास्तों का क्या हुआ
जीवन कड़ी के अर्थ को
पहचानने का क्या हुआ
आज फिर से वो सवाल
खिड़की पे ठक-ठक करने लगे
आज फिर डर से ठिठुरकर
हम बाथरूम में छिपने लगे
आज फिर उसी हताशा में
सर को लटका हुआ पाया
आज फिर इन्ही पैरों को
कहीं-कहीं से कमज़ोर पाया
थोडा सिसके, थोडा सकपकाए
फिर यकायक
शीशे में खुद को देख
उसी पुरानी ज़िद में बड़-बडाये -
"अभी बूढ़े नहीं हुए हैं .. ,
बस दो तीन बाल
सफ़ेद हो चले हैं "