Recollecting some thoughts from the last evening at home, I tried to pen them on the Airlines napkin during transit. If mummy sees this, a scolding for such a bad handwriting would sure be on the way :).
बीस दिन बचपन के ..
आज तेरी बाहों में जो
कल न जाने होगा कहाँ
आज तेरी आखों में माँ
कल से आखों का सपना
यह कुछ दिन थे जो तेरे साथ
जैसे बचपन लौटा बरसों बाद
वो बेफिक्री का अल्हड़ एहसास
बार बार आता है याद
प्यार का निवाला लीये
प्यार से खीलाती थी माँ
मंद सी पुरवाई सी
बालों को सहलाती थी माँ
नीवाई सी, माँ, वो तेरी रसोई
उसमें बैठ मेरा बातें बनाना
कभी काँधे पे तेरे रखके सर
नींद का वो करना बहाना
ज़रा सी चोट पे चिल्लाकर
तुझको डराना और सताना
पर कल से तो ये बस यादें होंगी
तेरा घर छोड़ उड़ जाऊँगा माँ मैं
आज रात भर तुझे हंसा कर
सुबह धुंध मे खो जाऊँगा मैं
वैसे तो सब कुछ है वहाँ
छूने को आसमान , रहने को बसेरा
पर न जाने क्यों तेरे बिन
जी नहीं लागे है माँ मेरा
हँसती बोलती उस भीड़ मे भी
खुद को तन्हा पाता हूँ मैं
बस सुन्न होकर पत्थर की तरह
जीये जाता हूँ माँ मैं