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Tuesday, February 7, 2012

On Snow in Seattle

इस साल बर्फ़
इतनी मायूस क्यों है
ना वो शरारत है
ना वो नादानी
गाड़ी के शीशे से
हटाने को हाथ फेरो
तो तंग भी नहीं करती
अलग हो लेती है
कहीं और जा बैठती है

पिछले बरस ये ऐसी
चुपचाप नहीं थी
हाथ पकड़ कर, ज़िद करके
खुद खेलने ले जाती थी
कभी काँधे पे
चढ़ जाती थी
तो कभी पैर में
लिपट जाती थी
ये बर्फ खिखिलाती थी
जब कमीज़ में छुपकर
ज़ोर से गुदगुदाती थी

पर इस बरस
अकेली सी रहती है
पिछली बार जो सफ़ेद दुपट्टा
हठ करके सिलवाया था
किसी कफ़न की तरेह
ओढ़े बैठी है
पूछो, तो कुछ कहती नहीं
देखो, तो ज़रा हँस देती है
दिल की बीमार लगती है अपनी बरफां
अब शायद छोटी गुड़िया नहीं रही
..बड़ी हो गयी है

Thursday, December 15, 2011

on winters in Seattle ...

सर्दियों में ये शहर
एक ही रात पहने
कई दिन गुज़ार देता है
रात भी अब
रंग छोड़ने लगी है
शहर काला पड़ता
जा रहा है
कभी कभार धूप के कुछ
छीटें मार लेता है
तो यह कालिख थोड़ी
धुल जाया करती है
चेहरे पर कुछ चमक
आ जाया करती है

सर्दियों में ये शहर
एक ही रात पहने
कई दिन गुज़ार देता है

Friday, November 25, 2011

ख्वाब और हकीक़त

गुज़रे हुए वक़्त के
एक दर्द भरे लम्हे ने
कल के किसी हसीं ख्वाब से
झल्लाकर कहा
कम से कम मैं
हुआ तो था,
तुम तो शायद कोख़ से
बाहर ही नहीं आओगे,
हँसता हुआ ख्वाब
धीरे से बोला
अरे पागल ! किसने कहा
कि मैं नहीं होता
हकीक़त बनूँ ना बनूँ
पर मैं होता ज़रूर हूँ
मुझसे ही आदमी है,
कैफ़ियत है, ज़िन्दगी है
मुझसे ही तुम भी हो
मेरे जैसे ही किसी
ख्वाब में तुम हुए
ये सब हर तरफ देखो
सब एक ख्वाब ही तो है
बस अभी टूटा नहीं है

Monday, October 3, 2011

हाथ

हाथ सीख जाते हैं,
सीख जाते हैं एक नन्ही सी जान
को गोद में उठा लेना
एक बुज़ुर्ग को सहारा देना
अंधे को आँख देना
तबले को ताल देना
रोड़े ईंट पत्थरों को फोड़ना
या नाज़ुक से फूल को तोडना

हाथ समझदार हैं,
समझते हैं क्या ज़ुरूरी है
मन भले चंचल सा भटकता रहे
पर ये स्थिर होकर
काम करना जानते हैं
एक बच्चे की पीठ थपथपाकर
हौंसला बढ़ाना जानते हैं
एक दोस्त के काँधे पर हाथ रखकर
तसल्ली देना जानते हैं

हाथ ज़िद्दी हैं, गुस्सैल हैं,
जो मुठ्ठी भीच लूं
तो कुछ तोड़ के ही दम लेते हैं
किसी नारे के लिए उठ जायें
तो आवाज़ को ललकार बना देते हैं
और जो हज़ारों हाथ साथ दे जाएँ
तो क्रांति ला देते हैं
तख्ता पलट देते हैं
इतिहास बना देते हैं

हाथ रूमानी हैं,
प्यार करना जानते हैं
हाथ में उसका हाथ में आते ही
पिघल से जाते हैं
कोमल हो जाते हैं
परवाह करने लगते हैं
किसी का ख़याल करने लगते हैं
उसकी उँगलियों में इन उँगलियों को
ऐसे फंसा लेते हैं
जैसे इन्हें एक दूसरे के लिए ही
बनाया गया हो

हाथ खूबसूरत हैं,
श्रृंगार करते भी हैं
श्रृंगार बनते भी हैं
और बेहद खूबसूरत
तो वो दो हाथ थे,
वो झुर्रियों से
गढ़े हुए दो हाथ,
वो जर्जर सूख चुके दो हाथ,
जिन्होंने कलकत्ता की सड़को से
एक एक कोढ़ी को उठाकर
नहलाया, इज्ज़त के साफ़ कपडे पहनाये
रहने के लिए छत दी
और जी सकने लिए एक उम्मीद

Friday, September 23, 2011

परछाईं

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली
कोई रोज़ ब रोज़
मुझ पर नज़र रख रहा है
खुदा जाने कौन है
क्यों परेशां हो रहा है,
कभी दिख जाये
तो पुकार लूं
तुम यहीं आ जाया करो
यहीं ठहर जाया करो
तुम वहाँ गलियों में
आवारा भटकते रहते हो
मैं यहाँ घर में
तन्हा बैठा रहता हूँ

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली

Wednesday, September 14, 2011

ख्याल

ज़िन्दगी यूं भरी भरी सी है
के हाथ फेरने तक की जगह नहीं
अरी मेरी प्यारी नज़्म,
तुम्हारे लिए कोई ख्याल
कहाँ से निकालूँ

Monday, September 5, 2011

मुन्नू के लिए

Dad being in a transferable job, many of my friendships had to part in childhood. As I look back, I feel that those friendships did not die, rather got frozen in time, their innocence preserved and insulated from all the harsh realizations and realities of growing up. Rare would be such objects of sheer simplicity & purity in my otherwise complicated life. One such friendship was with Manish, lovingly called Munnu, whom I could not see or talk to all these years. A few days back, as I turned to his facebook page to wish him happy birthday, I was told that he left us two years ago due to an unfortunate heart attack. A few words poured out that day as I remembered him. I hope he is listening to me wherever he is.

खेल
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याद है वो खेल
पांचवी में थे हम
स्कूल की बन रही बिल्डिंग
के सामने पड़ी
उस बंजर ज़मीन में
बनी तंग खाइयों पर
कूदते हुए जाने
की रेस लगाते थे

दीवाने थे हम उस खेल के,
रिसेस की घंटी बजते ही
कभी कभी तो टिफिन भी आधा छोड़,
दौड़ पड़ते थे - एक दूसरे को आज़माने
मैं लम्बे होने का
फायदi उठा लेता था
तो तुम
अपनी तेज़ रफ़्तार का,
मुकाबला टक्कर का रहता था

ज़िन्दगी के इस खेल में
बची हुई इन खाइयों पर
मुझे अकेला ही कूदते हुए
क्यों छोड़ गए हो मुन्नू
यही एक रेस तो हमें
साथ ख़त्म करनी थी दोस्त,
यही एक रेस

Friday, August 12, 2011

बेचैनी

रात भर घुलता रहा चाँद फ़लक पर
रात भर रोती रही हवा सिसक कर
रात भर तेरी यादों की चादर ओढ़े
बेचैन से बस, करवट बदलते रहे हम

शब्दार्थ :- फ़लक = sky

Saturday, August 6, 2011

बाज़ार

ये कौन सा बाज़ार है
जहां एहसासों को बेचा जाता है,
कारोबार के शोर में
सन्नाटों को फेंका जाता है,
खरीदारों की भीड़ में
तन्हाइयों को पेशा जाता है |
इन्हीं साजों सामानों के बीच
कुछ वो एहसास भी हैं
जिन्हें तुम कभी छोड़
गए थे मेरे पास,
एक अरसे से रखे हुए थे
मेरी मेज़ की ड्रोअर में |
मुफ़लिसी के इन दिनों में
ले आया हूँ अब उन्हें भी
नज्मों बज्मों की
इन दुकानों में,
शायद यहीं कुछ मोल मिल जाए,
इस अजीब से बाज़ार में जहां
..जज़्बातों को बेचा जाता है

शब्दार्थ :- मुफ़लिसी = poverty

Monday, August 1, 2011

हिज्र की रात (Night of Separation)

याद है वो रात ?
जब हिज्र के दर्द में
हम घंटों रोये थे ,
वो सुर्ख सा पेड़ जिसकी
बेजान सी एक डाल तले
मेरी गोद में रखके सर
तुम भी एक बेजान सी
घंटों लेटी रहीं ,
ना मेरे पास
कोई जवाब था
ना तुम्हारे पास
कोई उम्मीद

उस रात के कुछ लम्हे
अब पक़ चुके हैं,
उम्र के साथ कुछ हसीं
भी हो आयें हैं,
और जहां हमने अपने सपनों
को दफ़्न किया था,
जाकर देखो वहाँ एक
फूल खिल आया है


शब्दार्थ :- हिज्र = separation, बेजान = lifeless, दफ़्न = bury

Monday, July 25, 2011

' सॉरी ' (Sorry)

' सॉरी ' ये लफ्ज़ आख़िर क्या है
तुम्हारी ज़बां से निकली
जो ये हवा है
' सॉरी ' तुमने बस कह दिया
और मैंने सुन भी लिया
पर दिल तो अब भी
वहीँ टूटा पड़ा है

काश के ये लफ्ज़ हमने
बनाया ही ना होता
तो तुम सिर्फ दिल
से माफ़ी माँग सकते
और मैं सिर्फ दिल
से माफ़ कर सकता

(*Credits/Notes : Inspired by Zindagi Na Milegi Dobara.)

Sunday, July 17, 2011

इस हफ्ते मकाँ बदलना है

इस हफ्ते मकाँ बदलना है
खुद कहीं लापता हूँ
पर पता बदलना है
इस हफ्ते मकाँ बदलना है

कुछ फ़ुरसत मिली तो आज
अपने कमरे में कुछ देर
तक यूँ ही डोलता रहा |
दो साल पहले जिस ज़िन्दगी
को चंद बक्सों में
उठा कर ले आया था
वो इस कमरे के कौने कौने
में ऐसे फ़ैल चुकी थी
जैसे किसी दीवार से
लिपटी हुई बेल हो जिसकी
ना तो शुरुआत का पता
चलता है ना ही अंत का |
कहीं फर्नीचर, कहीं किताबें
कुछ गैजेट्स, कुछ कपड़े,
कहीं पेड़ पौधे, कहीं साज़
कुछ अधूरी पड़ी नज्में |
कितना कुछ उठाया जायेगा,
पहुँचाया जायेगा
और फिर से सजाया जायेगा
कुछ टूट जायेगा
कुछ यहीं छूट जायेगा
कुछ खो जायेगा
शायद कुछ मिल भी जायेगा

यूँ तो एक आफत एक झंझट ही है ये
मगर दिल को कुछ सुकूँ भी होता है
के इतना भी आवारा नहीं हूँ मैं
मुझसे भी एक घर सा बनता है
मेरे साथ भी ..
.. कुछ सामान चलता है

Friday, June 17, 2011

चोर सिपाही

फलक से कुछ ऊपर
एक नादान सा तारा
पूरी रात मेरी खिड़की पर
टंगा खेलता रहा
मैं टकटकी लगाए
उसका ध्यान रखता रहा
सिर्फ इक पल को मेरी आँखें
झपकी में बंद हुईं
बस तभी वो चालाक चोर
भरी रात में उसे तोड़ ले गया

Sunday, June 12, 2011

चाँद

फिर किसी बात पर चाँद बिगड़ गया
आज रात फिर अमावस होगी
फिर अंधियारा पसरेगा
तुमसे कहा था ना
चाँद से यूं उलझा न करो

बिन कोरी चांदनी अब
कैसे मैं पड़ोस घर
आलन लेने जाऊंगी
कैसे बर्तन भांडे होंगे
ढ़ोरों को चारा होगा
कैसे मुन्ना सोवेगा

तुम कैसे खेतों को बाचोगे
अब तो ये मुई गाय भैंसे भी
रोशनी बिन पूरी रात
घुड़मुड घुड़मुड करने लगी हैं

फिर किसी बात पर चाँद बिगड़ गया
तुमसे कहा था ना
चाँद से यूं उलझा न करो
उफ़. पूरा महीना निकल जायेगा
अब उसे मनाते मनाते

Wednesday, June 1, 2011

आग

मेरी खिड़की पर रखा पानी
पीने वाली चिड़िया
आज नहीं आई |
कबीरा कहता है
जंगल में कोई
बड़ी आग लगी है,
कई पेड़ राख
हो गए हैं,
ढोर परिन्दों की
कोई ख़बर नहीं |

कल रात के सन्नाटे में
लड़खड़ाती हुई उस लड़की को
जंगल की ओर जाते देखा था
गाल पे सूखे हुए आसूं
एक हाथ में मशाल
और दूसरे में
कुछ उधड़े हुए सपने थे |