Friday, September 23, 2011

परछाईं

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली
कोई रोज़ ब रोज़
मुझ पर नज़र रख रहा है
खुदा जाने कौन है
क्यों परेशां हो रहा है,
कभी दिख जाये
तो पुकार लूं
तुम यहीं आ जाया करो
यहीं ठहर जाया करो
तुम वहाँ गलियों में
आवारा भटकते रहते हो
मैं यहाँ घर में
तन्हा बैठा रहता हूँ

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली

Wednesday, September 14, 2011

ख्याल

ज़िन्दगी यूं भरी भरी सी है
के हाथ फेरने तक की जगह नहीं
अरी मेरी प्यारी नज़्म,
तुम्हारे लिए कोई ख्याल
कहाँ से निकालूँ

Monday, September 5, 2011

मुन्नू के लिए

Dad being in a transferable job, many of my friendships had to part in childhood. As I look back, I feel that those friendships did not die, rather got frozen in time, their innocence preserved and insulated from all the harsh realizations and realities of growing up. Rare would be such objects of sheer simplicity & purity in my otherwise complicated life. One such friendship was with Manish, lovingly called Munnu, whom I could not see or talk to all these years. A few days back, as I turned to his facebook page to wish him happy birthday, I was told that he left us two years ago due to an unfortunate heart attack. A few words poured out that day as I remembered him. I hope he is listening to me wherever he is.

खेल
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याद है वो खेल
पांचवी में थे हम
स्कूल की बन रही बिल्डिंग
के सामने पड़ी
उस बंजर ज़मीन में
बनी तंग खाइयों पर
कूदते हुए जाने
की रेस लगाते थे

दीवाने थे हम उस खेल के,
रिसेस की घंटी बजते ही
कभी कभी तो टिफिन भी आधा छोड़,
दौड़ पड़ते थे - एक दूसरे को आज़माने
मैं लम्बे होने का
फायदi उठा लेता था
तो तुम
अपनी तेज़ रफ़्तार का,
मुकाबला टक्कर का रहता था

ज़िन्दगी के इस खेल में
बची हुई इन खाइयों पर
मुझे अकेला ही कूदते हुए
क्यों छोड़ गए हो मुन्नू
यही एक रेस तो हमें
साथ ख़त्म करनी थी दोस्त,
यही एक रेस