Friday, September 23, 2011

परछाईं

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली
कोई रोज़ ब रोज़
मुझ पर नज़र रख रहा है
खुदा जाने कौन है
क्यों परेशां हो रहा है,
कभी दिख जाये
तो पुकार लूं
तुम यहीं आ जाया करो
यहीं ठहर जाया करो
तुम वहाँ गलियों में
आवारा भटकते रहते हो
मैं यहाँ घर में
तन्हा बैठा रहता हूँ

आज रात फिर आँख खुली
खिड़की पर फिर कोई परछाईं चली

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