इस हफ्ते मकाँ बदलना है
खुद कहीं लापता हूँ
पर पता बदलना है
इस हफ्ते मकाँ बदलना है
कुछ फ़ुरसत मिली तो आज
अपने कमरे में कुछ देर
तक यूँ ही डोलता रहा |
दो साल पहले जिस ज़िन्दगी
को चंद बक्सों में
उठा कर ले आया था
वो इस कमरे के कौने कौनेमें ऐसे फ़ैल चुकी थी
जैसे किसी दीवार से
लिपटी हुई बेल हो जिसकी
ना तो शुरुआत का पता
चलता है ना ही अंत का |
कहीं फर्नीचर, कहीं किताबें
कुछ गैजेट्स, कुछ कपड़े,
कहीं पेड़ पौधे, कहीं साज़
कुछ अधूरी पड़ी नज्में |
कितना कुछ उठाया जायेगा,
पहुँचाया जायेगा
और फिर से सजाया जायेगा
कुछ टूट जायेगा
कुछ यहीं छूट जायेगा
कुछ खो जायेगा
शायद कुछ मिल भी जायेगा
यूँ तो एक आफत एक झंझट ही है ये
मगर दिल को कुछ सुकूँ भी होता है
के इतना भी आवारा नहीं हूँ मैं
मुझसे भी एक घर सा बनता है
मेरे साथ भी ..
.. कुछ सामान चलता है
1 comment:
awesome....bahut hi mast likha hai !!
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