Thursday, May 12, 2011

माँ

किसी सिराने रखी
किताब की तरह
तुम्हारी यादों को
उठाकर पन्ने पलटते
पलटते आज बहुत
दूर निकल गया |
दिखाई दिया उस
ऊंघते शहर का
वो पुराना मकान
जिसकी बालकनी की
रेलिंग का हत्था
मैंने शरारत में
तोड़ दिया था
वो आज भी
टूटा हुआ है |
तुम्हारी रसोई
बहुत लाचार है ,
जहां तुम मर्तबान
रखती थीं वहाँ
जाले आ गए हैं
पर उनके अचार
की खुशबू आज भी
वहीँ रहती है |
वहीँ बरामदे की दीवार पर
शीशम की लकड़ी वाला
वो चकोर सा आइना है
जिसमे शायद मेरा
सारा बचपन कैद है
काश वो आइना
उसे फिर दिखा सकता

6 comments:

aman said...

Notes to Self : Mother's Day just went by. Nice excuse to write

chins said...

Lovely as always! :)

m s rathi said...

....WOW..........RULA MAT......

Sandeep said...

awesome :)

Nirmal Mehta said...

awesome!
nice to see that you started writing again

Anubha said...

too good :)